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Wednesday 29 August 2012

उबासी ने अंगडाई लेते हुए कहा






उबासी ने अंगडाई लेते हुए कहा
कितने दिन हुए तुम्हे
आँख बंद किये
अपने दिल की सुने
कितने अच्छे थे वो दिन
जब शब्दों की दुनाली से
ख्यालों को ज़मीनोंदाज़ कर दिया जाता
अँधेरे मौसमो
गहराते सायों को
नेस्तनाबूद  किया जाता
तुम्हारे आत्म-समर्पण ने
अलसा दिया है सपनों को
अब ढूंढ रहे हैं
आँखों की छाँव
भटक रही हैं आँख
भटक रहे हैं सपने
ठहरी आँख को नहीं है कोई इंतज़ार
न देखती हैं बाहर
न देखती हैं भीतर
अलसाए से लम्हे
वक़्त से नज़रें चुराते
दामन से लिपटे
मासूम बच्चे की मानिंद बेखबर
बैठे हैं देहरी पर
तकते हैं राह
कि बजेगा घड़ियाल
और चल देंगे आगे
कुछ भी तो नहीं होता
रुक गया है सब
सुनो !
पलक को झपकने दो
आँख को सोने दो
सपनों को आने दो
दुनिया को चलने दो
फर्क पड़ता है
तुम्हारे होने,
न होने से


Saturday 25 August 2012

मेरे वालिद की सुनहरी डायरी







मेरे वजूद का एक हिस्सा
सोया है किसी कोने में
खुदाया महफूज़ रख उसे
कि  लम्हे हैं कुछ हसीनतर क़ैद उसमें
बचपन है जवानी है
ठिठोली है ठहाके हैं
कुछ नर्म  अहसास भी हैं ..
और
कुछ अनछुए
अनजाने पल
किसी की ज़िन्दगी के
जो कर देते
मुक़म्मल एक शख्सियत को
काश !
मिल जाता वो दस्तावेज़
लिखा जाता था जो
खामोशी में अक्सर
फिक्र थी जिसमे ,कशमकश थी ,
हौसले थे ,कोशिशें थी ,
ज़द्दो-ज़हद थी ..और थी
बुलंदी पर पहुँचने की पूरी दास्ताँ  ..
पर
मुझे तलाश है
कुछ रूमानी लम्हों की
और
कुछ अपने साथ जिए वक़्त की
मुझे तलाश है अपनी रूह की
मेरे खुदा
दे दे मुझे
मेरे वालिद की
वो
सफ़ेद -सुनहरी डायरी  !

Wednesday 22 August 2012

घुटता है दम 
लरजता है कलेजा 
दरवाजे खोल दो 

मेरी सुबह को अन्दर आने दो 

Thursday 9 August 2012

शुक्र है ..





शुक्र है
मुझे कोई गफलत
कोई गुमां न था कि
मैं दुनिया बदल डालूंगी

शुक्र है
मुझे पता था कि
मैं वह हूँ
इंसान के तबके में
जिसे औरत जैसा कुछ कहा जाता है
शुक्र है
मैंने कभी कोई कोशिश नहीं की
नेता बनने  की
क्रान्ति लाने की
यह सोचने की कि
सोचने से सपने साकार होते हैं

शुक्र है
इससे पहले ही
मैं अनचाहे पत्नी
और
अनजाने ही
मां  बना दी गई

शुक्र है ..

Friday 3 August 2012






शिकायत नहीं
रोना भी नहीं
अतीत अब रुलाता नहीं
खामोशी को गहराता है
अपने साथ जीना
अब आखिरी विकल्प है जैसे
हँसना अब सार्वजनिक विषय है
रेलगाड़ी रूकती है
हंसी का कोई हाल्ट भी नहीं
क्रंदन एक्सप्रेस ट्रेन सा
सारे फासलों को तय करता
उड़ता जाता है
गंतव्य को पहचानते हुए भी
अजनबी सा
रास्ते की हर चीज़ से अनजाना सा
नहीं देखता
क्या छूटा क्या साथ रहा
जैसे खुद से भाग रहा है

Wednesday 1 August 2012

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     - एक बार तो आओ ना -
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          हैं कब से खाली खाली सी
          आँखें चाहती हैं भर जाना
          माँ  सपने  में आओ  ना
          पिताजी  को भी लाओ ना
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