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Monday 28 May 2012

रिश्तियां दी अग

ऐ भूरीयाँ अक्खां 
नई पह्चान्दीयां कुझ  वी 
ओ रूह है
जेह्ड़ी तेरे तक पहुंचदी है 
गुलाबी रूहां दा 
ए रिश्ता आसमानी है 
बदनीयत इल्जामाँ  दा भार बहुत है 
ऐ हरी -भरी धरती
लानतां सह-सह के 
ज़र्द पै गई सी जो 
रिश्तियां दी अग ने 
साड़ के 
स्याह  कर दित्ता है एहनू 
किसे रिश्ते दा बोझ 
नई सह सकदी हुन 
ऐ धरती ..

Saturday 26 May 2012

वो क्या है




कह रहा है जब से तू
सुन रही हूँ तब से मैं
                       वो क्या है
आँख में  भरा - भरा
दिल में खाली खाली सा
                       वो क्या है
ढूँढता .तलाशता
खोया खोया ,खोया सा
                       वो क्या है
आया तो गया नहीं
ठहरा तो फिसल गया 
                       वो क्या है
बरसों में है फैला -फैला
लम्हों में सिमटता सा
                       वो क्या है
जिस्म को छुआ नहीं
रूह  को  भिगो  गया
                       वो क्या है
कब ,कहाँ ,कैसे ,किधर
भीड़   में   सवालों   की
                       वो क्या है
भीतर भीतर घुट रहा
हुआ  कभी  नमू  नहीं
                        वो क्या है  

Thursday 24 May 2012

छोटी सी बात




छोटी सी बात
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उसने कहा
जिंदगी ऐसे जी जाती है
मैंने कहा
कैसे ?
उसने कहा
ऐसे ...
और छाप दिए
उँगलियों के निशान
मेरी आत्मा पर.....................

Monday 21 May 2012

कुछ नहीं कहूँगी






चलाओ खंजर या तलवार
कुछ नहीं कहूँगी

धकिआओ या करो प्यार
कुछ नहीं कहूंगी

बुलाओ पास औ' करो तिरस्कार
कुछ नहीं कहूँगी

नाम कर्तव्य के जताओ अधिकार
कुछ नहीं कहूँगी

कीमत वसूलो औ' कहो उपकार
कुछ नहीं कहूँगी

तुम आओ ,आते रहो ..और करते वार
कुछ नहीं कहूँगी

एक तालीमयाफ्ता औरत हूँ मैं 

Saturday 19 May 2012


ज़िन्दगी इतनी है कि
हम जो उठे ,उठते गए और उठ ही गए ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि हम जो चले .चलते रहे ,बस चले ही चले ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि बैठ गए ,बैठे ही रहे और बैठ गए ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि  ढलती रही ,ढलती गई और ढल सी गई   ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि  सोने लगी,सो सी गई और सो ही गयी   ..

ज़िन्दगी कितनी है
कि उठ भी गई ,चल भी पड़ी ,
बैठ गई ,ढल भी गई
और सो भी गई ,
पर रुकी नहीं 

Wednesday 16 May 2012

नियति






मैं 
खुद से शुरू होकर 
खुद पर ही ख़त्म हो जाती हूँ 
सवाल यह नहीं ...
मैं मर गई 
या 
मार डाली गई 
सवाल यह है कि
क्या मरना ही नियति था ?

Monday 14 May 2012

आँखों के पार

आँखों के पार 
आत्मा में घुला घुला सा 
फैला था दूर -दूर तक 
नीला आकाश 
चमकता सूरज 
छन छन पसरी धूप 
सांझ को सुलगा कर 
शांत होती जा रही थी अब 
बहती शाम के सांवले सलोने गालों पर 
सूरज के छोड़े ज़ख्मों पर 
बादल के फाहे रखता दिन भी 
खो रहा था शाम की मदहोश आँखों में 
जुगनुओं के रेले 
आसमान में तारों के मेले 
चाँद की मनमानी और 
लुका-छिपी का दौर 
रात के लहलहाते आँचल पर 
चांदनी की कसीदाकारी 
हसीन मंज़र था............. 

आह !
एक कराह से तन्द्रा टूटी 
यूँ लगा 
आसमान में  तारा टूटा कोई 

भूल गया था 
यूँ स्टेशन की सीड़ियों पर बैठने की मनाही थी
पीठ सहलाता 
अपने ज़ख्म के लिए 
बादल का फाहा तलाशता 
सोच रहा था ...

काश !
मिल जाता कहीं से 
रात के आँचल का 
थोडा सा टुकड़ा 
तो ढांप लेता 
ज़ख्म अपना 
डंडा मारा भी तो पूरी ताक़त से था 
छोड़ गया था रूह पर निशान 

आह !
टूट गई कविता ..

Friday 11 May 2012

तुम्हें पता है न ..

तुम्हें  पता है न ..
मुझे तुमसे प्यार है 

जी करता है 
एक दिन के लिए ..बन जाऊं 
जो माँ कहती थी 
बच्ची ..
तुम्हें  बताना है ..
मुझे बहुत प्यार है 
कल -कल करती नदी के धारों से 
तितलियों से 
फूलों से 
खुशबुओं से 
तुमसे भी उठती है एक खुशबू 
तुम्हें  पता है न ..

मेरे पास पंख नहीं हैं 
फिर भी उड़ रही हूँ 
हवाओं के साथ 
इन्ही पंछियों ..तितलियों की तरह 
वादी के फूलों को छूती 
कल -कल करती नदी के धारों को छूती 
पर मैं तुम्हें  छूना चाहती हूँ 
तुम्हें  पता है न ..

डरती हूँ खुद से 
अपने जिद्दी मन से 
कहीं तुम्हारी साँसों के साथ 
ह्रदय में उतर गई 
तो फिर 
विस्थापन गवारा नहीं होगा मुझे 
तुम्हें  पता है न ..

मैं बताना चाहती हूँ 
तुम्हें  पाने या खोने की 
ज़द्दो -ज़हद नहीं है यह 
यह सफ़र है मेरा 
खुद को खो देने 
और फिर से पा लेने का 
तुम्हें  रुकना होगा 
मेरे पहुँचने तक 
वरना फिर खो जाउंगी मैं 
बच्ची हूँ 
तुम्हे पता है न !

Thursday 10 May 2012



तुम्हारे आने से पहले 
तय था तुम्हारा जाना 
वक़्त मुक़र्रर था 

तुम आये सकुचाते ,रुके ,संवरे और निखर गए 
मेरी आँखों के आईने में 
अपना  अक्स  निहारा 
गरूर झाँक रहा था तुम्हारी आँखों से 
आखिर सबसे हसीन मौसम का 
खिताब जो मिला था तुम्हे        
तुम्हारा खुद पर यूँ इतराना 
अच्छा लगा मुझे 
हर मौसम मेरा ही तो हिस्सा है 
वो पतझड़ भी ,जो अब आया है 
वो भी मेरा है 
तुम भी तो मेरे थे .
तुम बदल गए 
क्यों कि तुम्हे बदलना था 
मैं जानती थी 
बदलाव बनाया भी तो मैंने ही था 
तुम जाओ 
कि 
जाते मौसम का 
सोग नहीं मनाती मैं 
विलाप नहीं करती 
कभी कभी बरस जाती हूँ 
कि तपते दिल को राहत मिले 
बह जाती हूँ कि  ज़ख्म धुलें 
उठती हूँ गुबार बन के 
कि  न देखूं तुमको जाता 

प्रकृति होने की यह सजा 
खुद तय की है मैंने 
अपने लिए 

Wednesday 9 May 2012






एक खूबसूरत रिश्ता
न तुम संभाल पाए
और न मैं


लडखडाता
गिर गिर के उठता
उठ उठ के गिरता
चलता रहा ...
सहारे तलाशता ..
सांसों के लिए फडफडाता
विश्वास -अविश्वास  के बीच झूलता
आरोप -प्रत्यारोप के बीच सहमता
अहम् और समर्पण के संघर्ष में
असुरक्षित ,कमज़ोर ,कांपता
अपनी मौत के इंतज़ार में
पथराई आँख से राह निहारता ...
सिहरता ...


पल यही आखिरी तो नहीं ?

Monday 7 May 2012

आ गयी सोन चिरैया

जी आ गयी हूँ मैं ........ एक सोन चिरैया 
कौन हूँ मैं      जानती नहीं 
क्यूं हूँ ........क्यूंकि सब सीखा हुआ गलत साबित हुआ 
और जो नहीं सीखा 
वोह अब क्या सीखना..................... 
इसीलिए एक थी सोन चिरैया...............